शिक्षा और समाज

   शिक्षा और समाज का सीधा सम्बन्ध है. शिक्षा मनुष्य की आत्मा है. जिस प्रकार आत्मा के बिना शरीर नहीं चल सकता , उसी प्रकार शिक्षा के बिना मनुष्य नहीं चल सकता. भूख, प्यास, विश्राम या निद्रा, सेक्स जैसी आवश्कताओं की पूर्ति शरीर की स्वचालित व्यवस्थाओं के द्वारा मनुष्य और जीव-जन्तुओं में समान रूप से होती है. इनके अतिरिक्त अन्य जीव-जन्तु जन्म के समय से ही विविध कार्य स्वयं समझने और करने लगते हैं जबकि मनुष्य को खाना खाने, चलने और बोलने आदि का ढंग तक अभिभावकों को सिखाना पड़ता है. परन्तु मनुष्य में ज्ञान का विकास असीमित हो सकता है जो पशुओं में नहीं होता. ज्ञान का स्रोत शिक्षा होती है जिसे व्यक्ति परिवार, आस-पास के वातावरण, पुस्तकों, विद्यालय तथा अन्तः प्रेरणा से प्राप्त करता है. वातावरण में ही मुद्रित एवं इलेक्ट्रोनिक मीडिया भी समाहित है.


   घर में शिशु खाना-पीना, चलना, बोलना, वस्त्र पहनना जैसी क्रियाएँ सीखता है जिनसे जीवन चलता है. इनके अतिरिक्त वह धर्म, संस्कृति और परम्पराएं भी घर से ही सीखना प्रारम्भ करता है. यदि वह विद्यालय पढ़ने जाता है तो उसकी इन शिक्षाओं का परिमार्जन होता जाता है और अच्छे जीवन की ओर बढ़ने लगता है. उच्च शिक्षा में पारंगत होकर वह एक सम्मानित जीवन व्यतीत करने की ओर अग्रसर होता है.


   परिवार के साथ ही बच्चे अपने आस-पास के लोगों के व्यवहार से भी सीखना प्रारम्भ कर देते हैं. जैसे-जैसे वे अन्य लोगों के सम्पर्क में आते-जाते हैं, उनसे तथा अपने अनुभव से भी बहुत कुछ सीखते हैं. मनुष्य के मस्तिष्क के विकास की सीमा नहीं निर्धारित की जा सकती. यदि कोई शिशु बहुत सक्रिय तथा उसके सीखने की गति वह तीव्र है तो बिना सिखाए दूसरों को देखकर तथा स्वयं से भी नित नवीन बातें और क्रियाएँ सीखता जाता है. यदि ऐसे बच्चों पर उचित ध्यान न दिया जाय तो वे किसी भी दिशा में आगे बढ़ सकते हैं जो बाद में उनकी विद्यालयीन शिक्षा पर विपरीत प्रभाव डालता है क्योंकि तब वह अपनी इच्छा के विरुद्ध कोई भी कार्य नहीं करना चाहता है.


विद्यालय में शिक्षक का शिक्षक होना आवश्यक है जो इसके लिए तत्पर हो कि बच्चे को इन्सान बनाना है, बड़ा बनाना है जो भविष्य में स्वयं और अपने परिवार के साथ समाज और देश के हित में भी कार्य करे. मैं अनेक तथाकथित शिक्षकों, प्राध्यापकों और प्राचार्यों से मिलता रहता हूँ. मैंने शिक्षक बहुत कम देखे हैं. अधिकांश लोगों का उद्देश्य तो अपना और अपने परिवार का पेट भरना तथा विविध सुविधाएँ जुटाना होता है. प्राचार्य तो निरीह नौकरों से भी गए-बीते होते हैं. उन्हें अपने अधिकारियों के सही-गलत आदेशों को पालन करने की मजबूरी हो सकती है परन्तु ऊंचा वेतन लेकर दूसरों के सामने रौब झाड़ने वाले ये लोग प्रायः इतने कायर और डरपोक होते हैं कि छात्रों का भला सोचने से भी डरने लगते हैं. १९८५-८६ की बात है. वर्तमान छत्तीसगढ़ और उस समय के म.प्र. में कोरबा के निकट कठघोरा में शासकीय नियमों के विरुद्ध कुछ गुंडों की बात न मानने के कारण वहां के शासकीय महाविद्यालय के प्राचार्य को उन्होंने मारा और मुंह पर पान थूक दिया. प्रदेश क्या उस क्षेत्र के किसी भी प्राचार्य ने डर के मारे इसकी चर्चा तक नहीं की जबकि अन्य किसी विभाग में ऐसा होने पर विरोध-प्रदर्शन होने लगते हैं और प्रशासन को कार्यवाही करनी पड़ती है.इसके साथ ही प्रशासन में बैठे छोटे-बड़े बाबुओं ने दब्बू प्राचार्यों और शिक्षकों को और दबाना शुरू कर दिया.


     इसका प्रभाव यह हुआ कि शिक्षक-प्राचार्य अपनी नौकरी बचाने वाले, अपना पेट भरने वाले हो गए. शिक्षा के इस पतन की परम्परा को कांग्रेसी सत्ता परिवर्तन के बाद भाजपा ने और गति दी. जो शिक्षक सही-गलत कुछ बोल ही नहीं सकता, वह बच्चों को समाज के बारे में क्या बताएगा. इसके साथ ही वे विद्यालयों-महाविद्यालयों में शिक्षक तथा अन्य स्टाफ देना कम करते गए. और अब यह सोच बनती जा रही है कि सीडी बनवाकर सबको पढ़वा दो, शिक्षकों की आवश्यकता ही कहाँ रह गई है. नेता सोचते रहे कि लोग मूर्ख और दब्बू रहेंगे तो उनकी सत्ता को चुनौती देने वाला कोई नहीं होगा. परन्तु यह उनकी भूल है. इसी में कांग्रेस का सफाया हो गया और आने वाले समय में दूसरे सत्ताधारियों का भी होगा.


   कांग्रेस की सोच के कारण जनजातियों के नाम पर नेताओं-अफसरों ने खूब लूट मचाई. इन्होंने नहीं पढ़ाया तो क्या हो गया ? किसी ने तो पढ़ाया और अनेक लोग नक्सली बन गए. उनके लिए सरकार और सरकार के लोग दुश्मन हो गए. लोगों को शिक्षा और विकास के नाम पर लूटने का परिणाम यह हुआ है कि उनमें विवेक ही नहीं रहा कि वे सही-गलत को समझ सकें. आज का मीडिया जो रुपयों के लिए जी रहा है, स्वार्थ के लिए कुछ भी करने को तैयार है. वह ऐसे सीरियल बना कर दिखाता है कि लोग परस्पर लड़ते-झगड़ते रहें. वह समाचारों को ऐसा तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत करता है जिससे सामाजिक विघटन को गति मिले. परिणाम यह हो रहा है लोग भी उसी को सही मानने लगे हैं और उसके अनुसार कार्य कर रहे हैं. आए दिन होने वाले दंगे-फसाद उन्हीं का परिणाम हैं. नेता चिंगारी लिए घूमते रहते हैं कि जहाँ अवसर मिले , आग लगा दो.


   आमेरिका और विकसित देशों में लोग पढ़े-लिखे होते हैं तो वे सोचते हैं कि नई खोजें करके धन कमाएं. अपने देश में भी जो लोग अच्छा पढ़-लिख गए हैं, वे अच्छी नौकरियों या व्यवसाय के द्वारा धन और प्रतिष्ठा प्राप्त करना चाहते हैं, चाहे वे किसी भी जाती-वर्ग के हों. परन्तु जिनके पास विद्या नहीं है, बुद्धि है और कुसंग में पड़कर वह विकृत हो गई है, वे क्या कर रहे हैं ? वे भी चुनौती पूर्ण कार्य कर रहे हैं. परन्तु उनकी चुनौती किसी अच्छे काम के लिए नहीं आपराधिक क्षेत्र में सक्रिय है कि वह कैसे बैंक लूट सकता है, सरे आम हत्याएं कर सकता है, भरे बाज़ार में लूट सकता है, महिलाओं से छेड़छाड़ कर सकता है और कैसे नए तरीकों से कुख्यात अपराध कर सकता है क्योंकि उसमें भी धन और प्रतिष्ठा मिलती है भले ही वह राष्ट्रद्रोहियों से मिलती हो या चोर-लुटेरे नेताओं से.


   यदि सरकारें अभी भी न चेतीं और कम्प्यूटर-मोबाइल-रोबोट समाज बनाकर इन समस्याओं को हल करने का सपना देखती रहीं तो वर्तमान सामाजिक विघटन की गति तीव्रतर होती जायगी और हम उसी इतिहास को दोहराते दिखेंगे जहाँ से हमारे पूर्वजों ने अपने बलिदान देकर हमें यह खुशहाली लाकर दी है.