राजधर्म कहता है कि भूख, निर्धनता और बेरोजगारी किसी राज्य में है तो यह प्रजा की नहीं, राजा की नाकामी दर्शाती है। भारतवर्ष के नागरिक इस त्रासदी को सदियों से झेल रहे हैं। आजादी के बाद पंचवर्षीय योजनाएं बनीं। लागू हुईं, परंतु इसका लाभ समाज के अंतिम पंक्ति में रहने वाले निर्धनों तक नहीं पहुंच सका । यह बड़ी विडंबना है कि शिक्षित हों या अशिक्षित, सभी तरह के लोग आज भी भारत में बेरोजगार मिल जाएंगे ।
देश में उदारीकरण का दौर जब शुरू हुआ, तब लोगों ने अनेक तरह की आशंकाएं जाहिर की थीं, परंतु उन्हें दरकिनार करते हुए तत्कालीन सरकार ने देश की प्रगति के तमाम सपने दिखाए थे। उनका यह तर्क सही हुआ कि प्रगति हुई, परंतु इस प्रगति ने देश का कितना नुक़सान किया, इसका आकलन करना आज आवश्यक है । आधुनिक मशीनों ने कितने कामगारों का रोजगार छीन लिया । यह यक्ष प्रश्न है। ट्रैक्टर के आने से खेतों में काम करने वाले मजदूर हाशिए पर आ गए। उन्हें शहरों में पलायन करने को मजबूर होना पड़ा। पहले हैंडलूम और खादी के कपड़े बनाने वाली इकाइयों में लाखों लोग काम करते थे। ऑटोमेटिक मशीनों और पावरलूम का प्रचलन शुरू हुआ तो इन कपड़ों का उत्पादन 10 फीसद से भी कम हो गया । आज यदि पावरलूम उद्योग के बजाय हैंडलूम और खादी का उत्पादन फिर से शुरू किया जाए तो करोड़ों बेरोजगारों के हाथों को काम दिया जा सकता है। क्या सरकार बड़े उद्योगपतियों को नाराज करने की स्थिति में है ? बड़ों की नाराजगी झेलने के लिए बड़े साहस की आवश्यकता होगी ।
सरकार ने देश में रोजगार सृजन के लिए एक टास्क फोर्स का गठन किया है , परंतु बीते 3 वर्षों में यदि देखा जाए तो केंद्र और राज्यों में रिक्त पदों को भरने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाए गए । देश के विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों में करीब 20 फ़ीसदी पद खाली हैं । इसी तरह शिक्षा, स्वास्थ्य , पुलिस, न्यायालय और भी अनेक विभागों में रिक्त पदों के समाचार मिलते रहते हैं । उन्हें यदि भर दिया जाता तो देश में बेरोजगारी का ग्राफ काफी घट जाता । बेरोज़गारी दूर होगी, तभी कुपोषण समाप्त होगा। यह दुखद है कि कर्ज और गरीबी के कारण अनेक किसान और बेरोजगार लोग आत्महत्या कर लेते हैं । इस समस्या का निवारण करना होगा ।
भारत में कृषि तथा कृषि आधारित छोटे उद्योगों तथा गतिविधियों में रोजगार की अपार संभावनाएं हैं , परंतु ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगारमूलक गतिविधियों को प्रोत्साहित नहीं किया गया। यह सच है कि ट्रैक्टर और हार्वेस्टर के प्रचलन से बेरोजगार हुए कामगारों को वैकल्पिक कार्यों से जोड़ने के उपाय नहीं किए गए। यह गंभीर चिंता का विषय है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने भारत में सैकड़ों उद्योग लगाए, परंतु ऑटोमेटिक मशीनों के उपयोग से वहां मानवीय श्रम का महत्व लगातार घटता गया। मनरेगा की दयनीय स्थिति सर्वविदित है। महानगरों और नगरों में वृहद उद्योग लगे । उनकी प्रतिस्पर्धा में कुटीर और छोटे उद्योग टिक नहीं सके। पहले छोटे-छोटे कस्बों और जिलों में डबल रोटी बनाने की इकाइयां थीं और उसमें हजारों लोग काम करते थे। अब ब्रेड बनाने वाले बड़े उद्योग लग गए । वे ग्रामीण और शहरी सभी क्षेत्रों में इसका वितरण कर रहे हैं , इससे छोटी इकाइयां बंद होती चली गयी । इसी तरह अनेक प्रकार के उद्योग और व्यवसायों पर नजर डालें तो देखेंगे कि उदारीकरण के आगमन से भारत इंडिया बनता चला जा रहा है । हमारे देश से भारतीयता विलुप्त होती जा रही है। भौतिकता और बाजारवाद हावी होता जा रहा है। यह चिंता का विषय है ।
पूर्ववर्ती सरकारों ने भारत के श्रम को महत्व देने वाली नीतियों को प्रोत्साहित नहीं किया। वर्तमान सरकार के सामने भी कुछ ऐसी ही समस्या दिखाई दे रही है। बड़े उद्योगों और बड़े व्यापारियों के प्रति उनका गहरा मोह और लगाव संभवतः अधिक कर राजस्व प्राप्ति हो सकता है। शायद इसीलिए छोटे और कुटीर उद्योगों को बढ़ावा देने की नीति देश में लागू करने से वह संकोच करती रही है । बड़े मॉल को बढ़ावा दिया जा रहा है और छोटे दुकानदारों की समस्याओं को हल नहीं किया जा रहा है। जीएसटी की जटिल प्रक्रिया ने उनके सामने जीविकोपार्जन का संकट खड़ा कर दिया है। कर प्रणाली इतनी सरल होना चाहिए कि गांव के छोटे छोटे दुकानदार भी उसका पालन कर सकें । नीति नियंताओं की सोच मानवीय कम और आर्थिक अधिक होने से यह समस्या पैदा हुई है । हमें इस भावना से ऊपर उठना होगा, तभी हम कुटीर उद्योगों को संरक्षण दे सकते हैं। यदि देश भर में छोटे-छोटे रोजगार से जुड़े कार्यों को बढ़ावा दिया गया होता, तो गांव से आज मजदूर और कामगार महानगरों की ओर पलायन नहीं करते। घर- गांव छोड़कर शहरों में आना उनकी एक बड़ी मजबूरी है, इसलिए कि गांव में रोजगार के अवसर नहीं है ।
अभी भी समय है। सरकार इस हेतु ठोस कदम उठाए। शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में बेरोजगार लोगों को काम पर लगाए । महिलाओं और युवाओं को कुटीर उद्योगों से जुड़ी गतिविधियों के विषय में प्रशिक्षण दिया जाए। योग्यता और कौशल के अनुरूप उन्हें स्वरोजगार से जोड़ा जाए । सभी सरकारी और निजी क्षेत्रों में खाली पड़े पदों को भरने की कार्रवाई जल्दी की जाए। ठेका और अनुबंध प्रथा समाप्त करके योग्य लोगों को नियमित नौकरी दी जाए। ठेका और अनुबंध प्रथा से उनका शोषण हो रहा है। श्रम कानूनों का उल्लंघन हो रहा है । बीच में ही कार्य से हटाए जाने पर उनकी इतनी सामर्थ्य नहीं कि वे कानूनी लड़ाई लड़ सकें ।
शिक्षित युवाओं को स्वरोजगार के लिए बैंकों से बिना गारंटी के कर्ज दिलाया जाए। रोजगार का सृजन और बेरोजगारी का निदान करके सरकार देश के नागरिकों में समृद्धि ला सकती है। बेरोजगारी दूर होने से ही देश मजबूत होगा।