पिछले 75 वर्षो से आजादी के अनुभव तो यही सिद्ध करते है कि देश भर में पाश्चात्य ढंग से दी जा रही शिक्षा अब पूर्णतः धन अर्जन का माध्यम बन गई है। इस दौरान महात्मा गांधी की ‘बुनियादी शिक्षा‘ को पूरी तरह दरकिनार करके, जिस तरह से ‘विदेशी शिक्षा‘ को सर्वत्र फैलाया जा रहा है उसी का परिणाम यह है कि शिक्षा भारतीय जनतंत्र को निरंतर कमजोर बना रही है। वर्तमान शिक्षा में तंत्र न तो हाथ से काम करने की प्रेरणा है और न ही संस्थागत समानता। एक ओर एक-दो कमरे वाले सरकारी छोटे-छोटे स्कूल हैं तो दूसरी ओर निजी हाथों में वातानुकूलित कमरों वाले बडे़-बडे़ स्कूल। लोग अब अपनी आर्थिक हैसियत के अनुरूप ऊंचे निजी स्कूलों में अपने बच्चों को पढ़ाने में ही अपना गौरव समझने लगे हैं। सामाजिक असमानता फैलाने वाली इस शिक्षा के प्रदूषण से मुक्ति के लिए ही गांधी के हिंद स्वराज में प्रस्तुत विचारों को सभी बुद्धिजीवियों और निर्णायकों द्वारा अनिवार्यतः पढ़ा समझा जाना चाहिए।
हिन्द स्वराज आधुनिक भारत में रचनात्मक चेतना लाने की दिशा में सफल प्रयास है। यह आधुनिकता को अधिक संवेदनशील, कम नकलची और अधिक आत्मविश्वासी बनाने का अनुष्ठान भी है।
असल में गांधी जी अपने समय के ऐसे वैज्ञानिक थे जो अपने ऊपर और अपने स्वजनों पर ही सर्वाधिक प्रयोग करते थे। उनका विज्ञान उत्पाद आधारित न होकर मानवोपयोगी तथा विचारमूलक था। उनका विज्ञान रचनात्मक था। चाहे चिकित्सा हो या उपकरणसंयोजन, सब में वे मनुष्य और वह भी पंक्ति का अंतिम व्यक्ति, उनकी नजर में महत्वपूर्ण रहता था।
तत्समय समाज में कुम्हार, लुहार, बढ़ई, बुनकर, गडरिए, मोची, रंगरेज, भड़भूूजे सब टेक्नीशियन ही तो थे। कुम्हार, मिट्टी की उपयोगिता, पानी के अनुपात और आंवा के ताप के बारे में जितना अधिक जानता-समझता था उतना शायद ही कोई और समझता हो। उसका विज्ञान उपकरण आधारित न होकर कंठस्थ अधिक था। गांधी इस स्थानीय ज्ञान का मानकीकरण करके उसे स्थायी और अधिक विकसित करना चाहते थे। दरअसल गांधी के लिए गांव और उसकी अर्थव्यवस्था प्राथमिकता के रूप में थी। वे गांव के उत्थान के लिए किसी भी सिद्धांत मेें बदलाव भी कर सकते थे। गांधी जी ऐसे आम इन्सान थे जिन्होंने अपने आपको संघर्ष, बलिदान और अनुभव से मांजा था। हिन्द स्वराज उनका ऐसा अनुपम ग्रंथ है, जिसे जो जितना अधिक खंगालेगा उसे उतने ही जीवनसूत्र मिलेंगे। गांधी जी की दृष्टि में जनतंत्र का मतलब था सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक दासता से मुक्ति। क्या भारतीय जनतंत्र का शिक्षा से भी कोई संबंध है ? गांधी जी ने हिन्द स्वराज में इसे स्पष्ट भी किया है कि “उस आदमी को सच्ची शिक्षा मिली है जिसका शरीर इतना सधा हो कि वह उसके काबू में रह सके तथा सहजता के साथ सुपुर्द किया गया काम करता हो। वही सच्ची शिक्षा है जो बुद्धि को शांत रखे, और न्याय दर्शी बनाए। उसका मन कुदरत के नियमों को मानता हो। क्या आज की शिक्षा में ऐसा कोई गुण है?
गांधी जी द्वारा अपने जीवन दर्शन की प्रस्तुति के रूप में लिखित हिंद स्वराज का पहला प्रकाशन दिसम्बर 1909 में ‘इंडियन ओपिनियन’ में गुजराती भाषा में हुआ था और जनवरी 1910 में यह पुस्तकार प्रकाशित हुआ जिसे मार्च 1910 में भारत की ब्रिटिश सरकार द्वारा जब्त कर लिया गया। यही इस पुस्तक की विशेष शक्ति भी मानी जा सकती है। यह विचारणीय है कि इतनी अद्भुत और महान पुस्तक अभी भी भारतीय जनता जनार्दन की आँखों से ओझल है जिस कारण यह वैचारिक परिणति का प्रतीक नहीं बन सकी है। आज जब दुनियाँ के बड़े-बड़े देश आर्थिक मंदी के दौर से गुजर रहे हैं। पाश्चात्य देशों की औपनिवेशिक सभ्यता और औद्योगिक क्रांति से उपजी समस्याओं का सच सबके सामने आ रहा है ऐसे समय में हिन्द स्वराज का दर्शन भारतीय लोकतंत्र और समाज के लिए मार्गदर्शी बन सकता है। अब और अधिक समय व्यर्थ बर्बाद किए बगैर देश के बुद्धिजीवी वर्ग को हिन्द स्वराज में वर्णित स्वदेशी विचारों पर गंभीर चिंतन आरंभ कर देना चाहिए।
असल में गंाधी जी को समझना लोग जितना आसान मानते हैं वे उतने ही मुश्किल से समझ आते है। यद्यपि जो गंाधी के प्रशंसक हैं उन्होंने उन्हें ईश्वर के समान पूज्य मान लिया है। यही बिडम्बना है। महात्मा गांधी ने नवम्बर 1909 में लंदन से दक्षिण अफ्रीका जाते समय अंग्रेजी (पाश्चात्य) आधुनिक सभ्यता की समीक्षा करते हुए अपने विचारों को ‘हिन्द स्वराज‘ के रूप में लिखा था। उन्होंने हिन्द स्वराज के माध्यम से भारतीय जन मानस को सावधान करते हुए लिखा था कि ‘‘उप निवेशवादी मानसिकता या मानसिक उप निवेशीकरण हमारे लिए बेहद खतरनाक हो सकता है।’’ एक भविष्य दृष्ट्रा चिंतक के रूप में गांधी जी ने जिस पश्चिमी सभ्यता में निहित अशुभ प्रवृत्तियों के खतरनाक परिणामों को रेखांकित किया था दुर्भागय से हम सब उसीमें फंसते जा रहे हैं। आजादी के 75 वर्षों बाद देश में अपनी स्वयं की नीतियों का घटता वजूद चिंतनीय है।
‘हिंद-स्वराज’ की प्रस्तावना में गांधी जी ने प्रमुख रूप से तीन उद्देश्य लिखे थे-
ऽ देश की सेवा करना है।
ऽ सत्य की खोज करना है। और
ऽ उसके मुताबिक बरतने का है।
इन उद्देश्यों की पूर्ति हेतु इनकी सहायता से गांधी जी चाहते थे कि अहिंसा देशवासियों की सबसे बड़ी शक्ति बन जाए साथ ही सत्याग्रह ऐसा अस्त्र बन जाए कि वह शोषितांे की तरह नहींए विद्रोही की तरह जीना सिखाए और ग्राम विकास की वैकल्पिक टेक्नोलॉजी का प्रसार इस तरह हो कि देश में सर्वाेदय महत्वपूर्ण माना जाए तथा लोक हिन्दुत्व, भारतीय सशक्तिकरण की राह बन जाए। अंततः देश के विकास का एक ऐसा प्रभावी मॉडल बनें जिसके माध्यम से नैतिक, सामाजिक, आर्थिक, आध्यात्मिक तथा शक्तिशाली स्वतंत्र भारत का निर्माण हो सके।
गांधी जी मूलतः संवेदनशील व्यक्ति थे लेकिन उनके इस पक्ष को अभी कम लोग ही जानते समझते हैं। जिस सह-अस्तित्व की भावना को आज भी सब मान रहे हैं उसे अपनाने की सलाह भी गांधी जी सदैव देते रहे। गांधी जी ने दक्षिण अफ्रीका में उस वर्ग की उपेक्षा के दर्द को गहरे ढंग से महसूस किया था जिसका उस देश की उत्पादन व्यवस्था में सर्वाधिक योगदान था। गंाधी जी की संवेदनशीलता की शुरूआत उनकी आत्मकथा से समझी जा सकती है जबकि हिन्द स्वराज उसकी पराकष्ठा हो सकती है। गांधी जी ने सदैव मानवीय राजनीति तथा मनुष्य के अस्तित्व को सर्वाधिक महत्व दिया। सामाजिक प्रतिबद्धता और मानवोन्मुखी चिंतन तथा सरोकार भी उनके लिए निरंतर सर्वाेपरि रहे।
गांधी जी ने उस पाश्चात्य विधा का अपने तरीके से भारतीयकरण किया जो आधुनिक व्यक्तिपरकरता और बौद्धिकता को महत्व देती है। उन्होंने आत्मलोचनात्मक ढंग से लिखी अपनी आत्मकथा के माध्यम से यह भी सत्य प्रस्तुत किया कि ‘‘सत्य और अहिंसा ही उनके जीवन की प्रमुखता है।‘‘
गांधी स्वनिर्णय को ही स्वराज का प्रमुख आधार मानते हैं। आज सर्वत्र स्वनिर्णय की अपेक्षा प्रशासनिक तानाशाही बढ़ती जा रही है। स्वतंत्रता का महत्व तो लगभग समाप्त सा है। प्रशासनिक तंत्र सर्वत्र हावी है और स्व यांनि जन (लोक) गायब होता जा रहा है। जो जन प्रतिनिधि हैं वे भी अंततः लोक की अपेक्षा तंत्र के साथ ही खड़े नजर आ रहे हैं। गांधी जी का मानना था कि ‘‘आदमी को उसके अंदर का डर सर्वाधिक आंतकित करता है।‘‘ इस आतंक का सामना भयमुक्त होकर ही करना संभव है। निर्भयता आदमी की सबसे बड़ी ताकत होती है। किसी भी अनचाही स्थिति का सामना भय मुक्त होकर ही किया जा सकता है। इसके लिए नेक इरादा भी चाहिए, एकता और विश्वास भी।
‘हिंद-स्वराज‘ मूलतः वैज्ञानिक विधा में लिखी गई ऐसी विशिष्ट पुस्तक है जिसमें गांधी ने अपने आपको संपादक और पाठक के रूप में विभाजित किया। इस पुस्तक में वे स्वयं ही प्रश्न पूछते हैं और खुद ही उसका जबाब भी देते हैं। यह विधा आत्म संयम और संतुलन की अत्यंत कठिन प्रक्रिया है। हिंद स्वराज के माध्यम से उन्होंने प्राचीनता और अपने समय के बीच एक सेतु भी निर्मित किया। वे अनेक स्थानों पर स्वयं से जूझते नजर आते हैय स्वयं ही अपने मत का खंडन करते हैं और स्वयं ही विवेचन करते नजर आ रहे हैं।
(लेखक हिंद स्वराज के अध्येता और शिक्षक संदर्भ समूह के समन्वयक हैं)