मेरे विद्यालय की एक अलग पहचान हैं...

मेरी प्रारंभिक शिक्षा शासकीय विद्यालय से प्रारंभ हुई। मेरे पिताजी शासकीय सेवा में एक छोटे-से पद पर कार्यरत थे। मैं अपने दो बड़े भाई एवं चार बहनों में उनकी सबसे छोटी संतान हूँ। मेरे पिताजी मैट्रिक पास थे। मेरी माता जी अनपढ़ होने के बावजूद मेरी शिक्षा में उनका बहुत बड़ा योगदान रहा है। मेरी माँ हर बात शिक्षाप्रद कहानी मुहावरों एवं लोकोक्ति के द्वारा समझाती थी। घर में सबसे छोटी होने की वजह से मुझे सभी का विशेष स्नेह प्राप्त था। मेरा बचपन अनेक तरह के अभावों में बीता है। हमारे पास आज-कल के बच्चों जैसे खेल-खिलौने और सुख-सुविधाएं प्राप्त नहीं थी।


जब मैं खुशी-खुशी विद्यालय पहुँची तो कुछ देर बाद ही स्कूल से भाग आई। यह क्रम सप्ताह भर चलता रहा। रविवार के दिन मेरी शिक्षिका घर आई और उन्होने मेरी शिकायत माँ से की, तब मेरा जबाव था ''स्कूल में पंखा नहीं है'' और ''मुझे गर्मी लगती है'' सुनकर वे हंस पड़ी। उन्होंने मुझे बहुत ही प्यार से समझाया बेटा! पढ़ाई करने से गर्मी नहीं लगती। उस दिन मैडम से जो अपनापन मिला फिर मैं स्कूल से कभी नहीं भागी। जितने दिन मेरी शिक्षिका छुट्टी में होती तब मैं भी स्कूल नहीं जाती थी।
हमारे समय में आज के बच्चों की तरह पढ़ाई का कोई विशेष दबाव नहीं होता था। हम खूब खेलते थे। मुझे अच्छी तरह याद है कि कक्षा पांचवी तक मैंने कभी भी घर आकर अपना बस्ता नहीं खोला और न ही माता-पिता ने पढ़ने के लिए कहा। हमारी शिक्षिकाएं पाठ पढ़ाने के बाद कक्षा के कुछ होशियार बच्चों को कक्षा की जिम्मेदारी सौंपकर अपने काम में व्यस्त हो जाती और कमजोर बच्चों को पढ़ाने की जिम्मेदारी हम दो चार होशियार बच्चों पर आ जाती।


हम इस कार्य को बखूबी निभाते और अपने इस कार्य पर गर्व करते। कक्षा में अब्बल नंबर रहने के बावजूद कक्षा पांचवी की बोर्ड परीक्षा में गणित विषय में मेरी सपलिमेंट्री आ गई। तब मैं असफलता का सही तरीके से मतलब भी नहीं जानती थी लेकिन इस असफलता ने मुझे अंदर से झकझोर कर रख दिया। मैं फेल हो गई तो भैया डांटेंगे। मेरी कक्षा के साथी मेरे साथ नहीं होंगे। मुझे अपने छोटे साथियों के साथ पढ़ना होगा इत्यादि विचार मुझे परेशान करने लगे। फिर मैंने बहुत मन लगाकर पढ़ाई की। इस डर से कि मैं फेल न हो जाउं और मैं अच्छे नंबरों से सपलिमेंट्री परीक्षा पास हो गई और मैंने अपने साथियों के साथ माध्यमिक विद्यालय में प्रवेश लिया।


माध्यमिक स्कूल का माहौल प्राथमिक विद्यालय से बिल्कुल अलग था। वहां एक ही शिक्षक हमें सारे विषय पढ़ाता था पर यहां प्रत्येक विषय को पढ़ाने के लिए हमें छः शिक्षक (विषय के विशेषज्ञ) मिले हुए थे जिनकी पकड़ अपने विषय पर होती थी। एक विषय का कालखंड समाप्त होते ही दूसरे विषय के शिक्षक बाहर आकर खड़े हो जाते थे और अंदर पढ़ा रहे शिक्षक से आग्रह करते थे कि अपनी बात जल्दी समाप्त करें अन्यथा मेरे पीरियड के चालीस मिनट कम हो जाएंगे। माध्यमिक शिक्षा के प्रारंभ से ही हम पढ़ाई के लिए बहुत ही सजग हो चुके थे। हमें छः विषय का गृहकार्य करना होता था, कक्षा में सबसे पहले हाथ उठाने और प्रश्नों को ज्यादा-से-ज्यादा उत्तर देने के लिए होशियार बच्चों को बीच प्रतिस्पर्धा की भावना कूट-कूट कर भर चुकी थी। इसके लिए मैं देर रात तक पढ़ती और सुबह जल्दी-जल्दी उठकर पढ़ाई करती। इतना पढ़ते थे कि मेरे माता-पिता पढ़ने के लिए मना करते। उन्हें कभी भी मुझे पढ़ने बैठने के लिए नहीं बोलना पड़ा।


मैं ऐसे परिवार से नहीं थी कि मुझे पढ़ाई के लिए ट्यूशन दिलाई जा सके। मेरी शिक्षा में मेरे घर के बगल में रहने वाले एक भैया का बहुत महत्व रहा। मोहल्ले के बच्चों को निःशुल्क ट्यूशन पढ़ाना उनका शौक था। मैं रोज शाम को भैया के आफिस से आने का इंतजार बहुत ही वेसब्री से करती थी। आज भी उनके द्वारा बताई गणित की विधियां मुझे याद हंै।  मेरी शैक्षणिक यात्रा के दौरान बहुत से ऐसे दोराहे आए जहां सही राह चुनने में उन्होंने मेरी मदद की और मुझे प्रेरित भी किया।


मेरी गिनती विद्यालय के अव्वल छात्रों में की जाती थी। वैसे तो सभी शिक्षकों से मेरा जुड़ाव था, लेकिन मेरे खेल शिक्षक श्री व्ही.पी.शर्मा और मेरे विज्ञान शिक्षक श्री एस.एस. दुबे सर का मेरी शिक्षा में विशेष योगदान रहा। परीक्षा के पूर्व वे हम पढ़ने वाले बच्चों को घर बुलाकर महत्वपूर्ण प्रश्नों पर चर्चा करते और हर प्रकार से प्रेरित करते। मैं जिस विद्यालय में बचपन से पढ़ी थी वो कक्षा-दसवीं तक ही था। इस प्रकार कक्षा दसवीं तक की पढ़ाई मैंने शासकीय स्कूल से पूर्ण की। दो वर्ष मैं प्रायवेट स्कूल में पढ़ी। जिस प्रकार से शिक्षक के साथ आत्मीयता की छाप मेरे मन में मेरे बचपन के सरकारी स्कूल के शिक्षकों ने छोड़ी वो आत्मीयता मुझे प्रायवेट स्कूल के शिक्षकों में नहीं मिली।


यहां तक पहुंचने के बाद में दोराहे पर थी। मैं बीएससी करूं या बीए। मैं विज्ञान विषय से काॅलेज की पढ़ाई करना चाहती थी, लेकिन हमारे शहर में एक ही काॅलेज था और वहां साइन्स के लिए ज्यादा अच्छी सुविधाएं नहीं थी। इसलिए आगे की पढ़ाई के लिए जबलपुर जाने की सहमति मेरे घर में बन गई। मेरा जबलपुर के बहुत अच्छे काॅलेज में प्रवेश के लिए मेरिट में नाम आ गया। मेरी खुशी की सीमा नहीं रही। मैं हाॅस्टल में रहना चाहती थी पर मेरे भैया-भाभी की मर्जी न होने के कारण पिताजी को उनके घर पर रखना पड़ा। मेरे भाई के घर से मेरा कॉलेज 10 किमी दूर था, और काॅलेज आने जाने के लिए मुझे सायकिल दिलाई गई। इस प्रकार मुझे काॅलेेज आने जाने के लिए 20 किमी का सफर करना पड़ता था। चूंकि मेरी भाभी की तबियत ठीक नहीं रहती थी इसलिए दो भतीजे और घर के काम की जिम्मेदारी मुझ पर थी। भैया का एक कमरे का छोटा सा घर था। बहुत ही मुश्किल से पढ़ने के लिए आधा एक घंटे का समय निकाल पाती। इस प्रकार पूरा साल बीत गया। परीक्षा का समय आ गया। जैसे-तैसे परीक्षा समाप्त हो गई और मैं वापस कटनी आ गई। परीक्षा परिणाम आया तब मैं सफल नहीं रही। मेरी माँ को छोड़कर सभी मेरी पढ़ाई बंद कर शादी के पक्ष में थे। परन्तु मेरी माँ ने सभी का पुरजोर विरोध कर, मेरी आगे की शिक्षा जारी रखने का निर्णय लिया। फिर मैंने विषय परिवर्तन कर आर्ट्स विषय से अपनी आगे की यात्रा प्रारंभ की।


मैंने कटनी में कन्या महाविद्यालय में प्रवेश लिया। हमारा दो कमरों का छोटा सा मकान था। परिवार बड़ा था। एक कमरा भैया-भाभी के लिए था, शेष बचे एक कमरे में ही हम सबको गुजारा करना पड़ता था। हमारे आंगन में एक जामुन का पेड़ लगा था। मैंने अपनी छठवी से लेकर काॅलेज तक की पढ़ाई उसी जामुन के पेड़ के नीचे 40 वाॅट के बल्ब के सहारे मच्छर और कीड़े मकौडा़े के साथ की। मेरे काॅलेज में आते-आते मेरी सभी बड़ी बहनों की शादी हो चुकी थी। घर पर भाभी आ चुकी थी। मेरी माँ की तबियत खराब होने के कारण मेरे ऊपर घर के कार्यों की भी जिम्मेदारी आ चुकी थी।


पढ़ने के दौरान मेरे मन में इस बात का डर था कि कहीं इस बार मैं सफल नहीं हुई तो फिर मेरी माँ भी मेरी आगे की पढ़ाई जारी रखने में मेरी मदद नहीं कर सकेगी इसलिए मैं देर रात तक पढ़ाई करती। परीक्षा के समय कभी भी बिस्तर में नहीं सोती थी। टेबल कुर्सी पर ही सिर रखकर बैठे-बैठे सो जाती थी, ताकि जितनी आवश्यकता हो उतना ही सोऊं। मेरी माँ पढ़ाई करते समय जागने में मेरा पूरा साथ देती। इस प्रकार मैंने ग्रेजुएशन के तीनों साल अच्छे नंबरों से पास कर लिए।


पोस्ट ग्रेजुएशन के लिए एक बार फिर दोराहे पर खड़ी थी। अंततः शास. काॅलेज में प्रवेश लिया। काॅलेज जाने के लिए पिताजी ने मोपेड दिला दी तो खुशी का ठिकाना न रहा। काॅलेज के हर लेक्चर में उपस्थित रहती। हमारे प्रो. श्रीवास्तव जी कक्षा में मेरे अकेले होने पर भी पूरी तन्मयता से पूरा लेक्चर पूर्ण करते थे। परीक्षा परिणाम आया तो मैंने प्रीवियस में काॅलेज में टाॅप किया।


प्रीवियस के बाद मेरा बी एड में चयन हो गया। फिर दोराहे पर कि मैं फाइनल करूं या बी एड। बहुत ही मुश्किल से निर्णय ले सकी कि मुझे पहले बीएड करना चाहिए। काउन्सिलिंग के समय मैंने बहुत-सारी परेशानियों पर विजय पाकर, जबलपुर के हितकारिणी काॅलेज में प्रवेश लिया और बीएड की पढ़ाई के लिए मैंने किसी भी रिश्तेदार के यहाॅ रहने से मना कर दिया। कटनी से जबलपुर अप एन्ड डाउन करके बीएड की परीक्षा उत्तीर्ण की। उसके बाद बच्चों को पढ़ाने के लिए प्रायवेट स्कूल ज्वाइन कर लिया साथ ही एम.ए.फाइनल की परीक्षा प्रायवेट से दी, जिसमें मैं सफल रही। मैं भी अब बच्चों को निःशुल्क ट्यूशन पढ़ाने का कार्य करने लगी इसी दौरान 2005 में मेरा विवाह हो गया। 2005 में ही संविदा शिक्षक की पात्रता परीक्षा भी उत्तीर्ण कर ली। अब मेरे सामने फिर दोराहे थे कि मैं सर्विस करूँ या न करूँ। मेरे पति इंजीनियर थे और वो नहीं चाहते थे कि मैं सर्विस करूँ। काउन्सिलिंग के समय मैं प्रेग्नेंट थी, इस वजह से मुझे मेडिकल फिटनेस में फैल कर दिया गया। फिर मैंने लड़ाई लड़ी तब कहीं विभाग द्वारा स्वीकार किया गया कि मै पूरी तरह से अनफिट नहीं हंू। डिलेवरी के उपरान्त फिटनेस सर्टिफिकेट के साथ मुझे ज्वाइनिंग दिलाई जाए। मेरी इस लड़ाई ने मेरे पति ने मेरा पूरा साथ दिया और हमें सफलता मिली। इतना सब कुछ करने के बाद भी वो मुझे सर्विस नहीं करने देना चाहते थे। यह मतभेद मेरे ड्यूटी ज्वाइन करने के बाद अगले पांच सालों तक चलता रहा। अंततः मैंने उन्हें अपनी सर्विस करने के लिए मना ही लिया।


अभी तक की शैक्षिक यात्रा में सबसे ज्यादा योगदान मेरी माँ का रहा, पर अब मेरी माँ के हाथ-पाँव शिथिल होने लगे और धीरे-धीरे उनका चलना-फिरना बंद हो गया। आगे की यात्रा में मेरे पिताजी का योगदान महत्व रखता है। मेरी डिलेवरी मेजर आॅपरेशन के द्वारा हुई और 1 माह के अंदर ही मुझे फिटनेस सर्टिफिकेट जमा कर ज्वाइनिंग देनी थी अन्यथा मेरी नियुक्ति स्वतः निरस्त मानी जाएगी। मेरा विद्यालय मुख्य मार्ग से 2 किमी अंदर था जहाँ तक परिवहन का कोई साधन नहीं था। एक माह की बच्ची, कमजोरी के हालात ऐसे हालातों में ड्यूटी करना असंभव सा लग रहा था, ऐसे में मेरे पिताजी रोज मेरे साथ स्कूल जाते और पूरे दिन मेरी बच्ची का ख्याल रखते, इस प्रकार मैं विद्यालय में अपना कार्य कर पाती। मेरे पिताजी तब तक मेरे साथ विद्यालय गए, जब तक मेरी बेटी घर पर छोड़ने लायक नहीं हो गई। मेरे पति की पोस्टिंग जम्मू काश्मीर में थी। मैं शादी के बाद भी अपने माता-पिता के घर पर ही रहती थी। धीरे-धीरे समय व्यतीत होता गया। अब मेरे दो बेटियां है एक ग्यारह वर्ष की दूसरी छः वर्ष की। पर मैं नहीं जानती कि बच्चे कैसे पाले जाते हैं। उनके पूरे पालन-पोषण का श्रेय मेरे पिताजी को जाता है। आज मैं अपने पति और बच्चों के साथ अलग मकान में रहती हूँ। पर आज भी मेरे बच्चे स्कूल आने के बाद पिताजी के घर पर ही रहते हैं, और मेरे विद्यालय से वापस आने तक वहीं उनको संभालते भी हैं।


मुझे जो विद्यालय मिला वह बगैरह बाउन्ड्रीबाल के दो कमरों का विद्यालय है। बच्चे पढ़ाई में बहुत ही पिछड़े हुए थे। मैं और मेरे दो शिक्षक साथियों ने बहुत ही मेहनत की और हम सब शिक्षा का स्तर सुधारने में लग गए। सब कुछ सही दिशा में चल रहा था कि दोनों शिक्षकांे को विद्यालय से जाना पड़ गया। अब विद्यालय का प्रभार मुझ पर आ गया और मेरी शाला एक शिक्षकीय हो गई। दो साल बाद मेरे यहां दो शिक्षक आए। शुरूआती दौर में हमारे बीच बहुत ही मतभेद रहे लेकिन जैसे-जैसे समय व्यतीत होता गया हमारे मतभेदों में कमी आती गई और मैं उनके विचारों को अपने विचारों से जोड़ने में मैं सफल रही।
मैं जिन उद्देश्यों को लेकर इस शिक्षकीय पेशे में आई थी मुझे वो उद्देश्य दूर-दूर तक पूर्ण होता नजर नहीं आ रहा था। मेरा ज्यादा समय विद्यालय की डाक बनाने में निकल जाता। मैं बच्चों को पढ़ा ही नहीं पा रही थी जिससे मैं बहुत परेशान रहती थी क्योंकि मैं कागजी कार्यवाही में उलझती जा रही थी। फिर मैंने चिंतन किया और मुझे समझ में आया कि मुझे स्वयं ही सबकुछ बदलना होगा और मैं अपने विद्यालय का स्वरूप बदलने में लग गई। इसके लिए मैंने अपनी दो माह की पेमेंट को विद्यालय के बच्चों की आवश्यकताओं को पूर्ण करने में लगा दिया। मेरे शिक्षक साथियों ने भी शारीरिक, मानसिक और आर्थिक रूप से मेरा पूरा साथ दिया। हमारे कार्यों को देखकर कुछ ग्रामवासी भी आगे आए। विद्यालय के एस.एम.सी अध्यक्ष ने भी हमारे इस अभियान मंे बढ़-चढ़ कर भाग लिया।


बच्चों की शिक्षा में गुणवत्ता लाने के लिए मैं सप्ताह में दो दिन विद्यालय 1 घंटे पूर्व पहुंच जाती हूँ। गांव के दो लोगों के यहां जाकर बैठती हूँ। उनके साथ चाय-नाश्ता करती हूँ और बच्चों के संदर्भ में चर्चा करती हूँ। हम विद्यालय में पालकों की मीटिंग आयोजित करते थे पर कोई भी पालक बैठक में नहीं आता था तो हमने पालकों के घर जाकर मीटिंग को सफल बनाने के सुझाव मांगे। उनकी तरफ से सुझाव आया कि बैठक रविवार के दिन हो और बैठक विद्यालय में न होकर गाँव की चैपाल में हो। हमने उनके सुझावों को मानकर निर्णय लिया कि प्रत्येक माह के अंतिम रविवार को गांव की चैपाल में बैठक आयोजित की जाएगी।


मैं और मेरे साथी शिक्षक शाम को घर जाने के लिए समय नहीं देखते; बल्कि कार्य देखते हैं। कभी-कभी हमें विद्यालय में ही 7 बजे जाते हंै। हमारा उद्देश्य है कि हम बच्चों को शिक्षा के उच्चतम स्तर तक ले जाएं।
मैं अपने कार्य व्यवहार के कारण कभी-कभी बहुत परेशान और निराश हो जाती हूँ। ऐसे में मेरे पति के विचार मुझे निराशा से उबरने में हिम्मत देते हंै। वे मुझे सिर्फ एक ही बात कहते है ''कि यदि तुम सही हो तो तुम्हारी विजय निश्चय होगी क्योंकि सत्य परेशान तो हो सकता है लेकिन पराजित कभी नहीं हो सकता।'' बस इन्हीं विचारों को लेकर मैं सदैव आगे बढ़ती हूँ और विजयी हो जाती हँू।


आज मेरे विद्यालय की कटनी जिले में एक अलग पहचान है। आस-पास के शिक्षक भी मेरे विद्यालय में भ्रमण करने आते हैं और हमारे अधिकारी भी हमारे कार्यों की सराहना करते हुए हमारा मार्गदर्शन करते हैं।
मेरी माँ अब इस संसार में नहीं है। मेरी यह यात्रा उन्हें समर्पित