माननीय मुख्यमंत्री जी! आप भली भाँति अवगत है कि विगत लम्बे समय से सरकारी विद्यालय प्रशासनिक और सामाजिक आलोचना के शिकार हैं। यहाँ तक कि शासन, सरकारी तंत्र और शिक्षा प्रशासन के आला अधिकारी अपने ही नियंत्रणाधीन संचालित होने वाले सरकारी विद्यालयों की कठोर आलोचना ही करते रहते हैं। संभवतः वे यह भूल जाते हैं कि यदि सरकारी विद्यालय अभी भी असफल हो रहे हैं तो असफल विद्यालय नहंीं; असफल शिक्षा तंत्र और वे स्वयं यानि 'सरकार' है। वे शायद यह भी नहंी सोच पा रहे हैं कि आखिर विद्यालयों की असफलता की जड़ में उनकी गलत नीतियाँ और कार्यक्रम ही तो है जिनके कारण सरकारी विद्यालयों की छवि और विश्वसनीयता का निरंतर क्षरण होता जा रहा है। अब सभी सरकारी अधिकारियों को अपने विद्यालयों के प्रति नकारात्मक रवैया छोड़कर, स्वतंत्र रूप से यह चिंतन करने का साहस दिखाना करना ही चाहिए कि आखिर सरकारी स्कूल असफल क्यों हैं?
मान्यवर! आप जानते हैं कि सर्वाधिक असफल सरकारी स्कूल प्राथमिक और प्रारंभिक शिक्षण क्षेत्र में ही हैं। अभी प्राथमिक शिक्षण क्षेत्र (कक्षा 1 से 5 वीं तक) के लिए सरकारी शिक्षातंत्र के वे लोग नीति-निर्माण प्रशासन और तंत्र के संचालन हेतु उत्तरदायी भूमिका में हैं जिन्होंने कभी भी प्रारंभिक शिक्षण क्षेत्र में काम (शिक्षण) नहंीं किया है। क्या कभी किसी प्राथमिक स्कूल के शिक्षक को उसके ज्ञान, कौशल और अनुभव के साथ-साथ कार्य के प्रति निष्ठा के आधार पर 'विभाग प्रमुख' के रूप में कार्य करने का अवसर दिया जा सकता है। शिक्षा अत्यंत संवेदनशील विषय है और इसके विपरीत अभी शिक्षा प्रशासन, समग्र रूप से अंततः कठोर सामान्य प्रशासन के लिए तैयार किए गए अखिल भारतीय प्रशासनिक सेवा ;प्।ैद्ध के अधिकारियों के हाथ में कैद होकर रह गया है। जो भी विभागीय अधिकारी शिक्षा तंत्र में शिक्षा के प्रति सहज और संवेदनशील होकर श्रेष्ठतम प्रस्ताव प्रस्तुत करता है, उसे मान्य या अमान्य करने का अधिकार तो अभी शिक्षा के इन्हीं मसीहाओं के पास ही सुरक्षित हैं।
मान्यवर, प्राथमिक और प्रारंभिक शिक्षा के लिए संचालित सरकारी विद्यालयों को प्रभावी रूप देने के लिए 1 अप्रैल 2010 से लागू किए गए शिक्षा अधिकार कानून (आरटीई) 2009 के एक दशक की अवधि के दौरान प्रांरभिक शिक्षा क्षेत्र में निजी स्कूलों की संख्या बढ़ती ही जा रही है। जितनी तेजी से इस दौरान (2009 से 2019 तक) सरकारी स्कूलों के लिए बजट राशि बढ़ी है उतनी ही तेजी से सरकारी स्कूलों का बजूद घटा है। अब सरकारी शिक्षा तंत्र द्वारा स्वयं ही सरकारी स्कूलों में बच्चों का नामांकन बढ़ाने की बजाय ऐसे दर्ज बच्चों के लिए मनमाने ढंग से फीस प्रतिपूर्ति भी की जाती है। विगत एक दशक के दौरान करीब 12 लाख से अधिक बच्चे, (जो सरकारी विद्यालयों में दर्ज होते थे) तंत्र के विशेष सहयोग से निजी स्कूलों में दर्ज कराए गए। हमारे प्रशासनिक अधिकारी वर्ग को ऐसे निजी स्कूलों की, अपने (सरकारी स्कूलों) की अपेक्षा ज्यादा चिंता सताती रहती है। यह भी विचारणीय है कि निजी स्कूलों में दर्ज हुए बच्चों के शैक्षिक विकास की वास्तविक स्थिति किसी को भी नहीं मालूम है।
पिछले 25 वर्षों के दौरान शिक्षा विभाग द्वारा प्रारंभिक शिक्षा के क्षेत्र में नित नये कार्यक्रम लागू करने की दिशा में कभी ए बी एल और ए एल एम का तमिलनाडु मॉडल, कभी एरिजोना यूनिवर्सिटी, यूएएस में प्रतिनिधियों के भेजकर वहां के शिक्षक प्रशिक्षण कार्यक्रमों को मध्यप्रदेश के प्रशिक्षण संस्थानों में प्रयोग के तौर पर थोपा गया। अभी हाल ही में दिल्ली प्रशासन के स्कूलों में हुए परिवर्तन को देखने के लिये भी मध्यप्रदेश की एक बड़ी टीम दौरे पर गई थी जिसने अभी तक कोई परिवर्तनकारी प्रस्ताव ही नर्ही दिया। अब पीसा टेस्ट में अग्रणी देश साउथ कोरिया के भ्रमण के लिये भी अनेक अधिकारी भेजे जा रहे हैं। अब आप इनसे पूछिये की इन 25 वर्षों के दौरान मध्यप्रदेश के सरकारी स्कूलों में सीखने का ग्राफ निरंतर गिरता क्यों जा रहा है? क्या अधिकारियों के विदेश भ्रमण कर लेने मात्र से बच्चों के सीखने का स्तर बढ़ जायेगा? क्या मध्यप्रदेश में ऐसा कोई अकादमिक विशेषज्ञ या शिक्षाविद् या मेघावी व्यक्ति नहीं है जो प्रदेश की शैक्षिक परिस्थिति के अनुरूप प्रदेश के सरकारी स्कूलों का कायाकल्प करने की नीति और कार्यक्रम तैयार कर सके।
मान्यवर, आप अवगत है कि पिछले 25 वर्ष अध्यापकों के आंदोलन की भेंट चढ़ गये हैं। उनकी मनःस्थिति बदले वगैर कोई शैक्षिक कार्यक्रम परिणाममूलक हो ही नहीं सकता। प्रदेश में आर्क, प्रथम, रूम-टू- रीड, यूनिसेफ, एकलव्य, अजीम प्रेमजी फाउण्डेशन, समावेश, एड एट एक्शन, एक्शन एड, टाटा रिसर्च फाउण्डेशन, टेस इंडिया, साइट सेवर, एजुकेट गर्ल के साथ-साथ अनेक एन.जी.ओ. भी कार्यरत् हैं। पिछले वर्ष से नीति आयोग के सहयोेग से ै।ज्भ् परियोजना के माध्यम से भी प्रबंधकीय कौशल में निपुण माने जा रहे नये-नये लोग मध्यप्रदेश की शिक्षा में मनमाने प्रयोग कर रहे हैं जिसका सीधा प्रभाव सरकारी स्कूलों की गुणवत्ता बढ़ने के बजाय उनका वजूद ही खतरे में पड़ता जा रहा है। आपको अब शिक्षा विभाग के आला अधिकारियों से यह पूछना ही चाहिए कि इतने सारे संसाधनों और लोगों के काम करने के बावजूद सरकारी स्कूलों की छवि और विश्वसनीयता घटती क्यों जा रही है।
मध्यप्रदेश की जनता से चुने लोक प्रतिनिधियों, विधायकों, सांसदों और इन्हीं में से विभिन्न विभागों के लिए उत्तरदायी बनें मंत्रीगणों को अब सभी अधिकारियों से यह प्रश्न पूछने का साहस दिरवाना चाहिए कि यदि स्वतंत्र विद्यालय (निजी विद्यालय) सफल हो सकते हैं, (जिन्हें कुछ लेाग या संस्थाऐं संचालित करते हैं) तो फिर सरकारी विद्यालय सफल क्यों नहीं हो पा रहे हैं? जबकि सरकारी तंत्र के पास सक्षमता, विपुल संसाधन और अधिकारिता उपलब्ध है जो निजी तंत्र के पास कभी भी नहीं हो सकती।
विचारणीय यह है कि सरकारी विद्यालयों के नियमन और नियंत्रण के लिए उत्तरदायी अंततः कौन है? शिक्षकों के कार्यो का प्रशासन और प्रबंधन कौन करता है? आखिर सरकारी स्कूलों के शिक्षक सफल शिक्षण क्यों नहीं कर पा रहे हैं? यदि सरकारी स्कूलों में काम करने वाले शिक्षक अयोग्य या असमर्थ हैं तो इनकी भर्ती करने वाले और इन को प्रशिक्षित करने वाले हम ही तो हैं? दिनों-दिन नए-नए शैक्षिक कार्यक्रम और योजनाओं- परियोजनाओं का निर्माण और संचालन करने वाले लोगों की भूमिका और जिम्मेदारी तय क्यों नहीं की जाती?
प्रतिवर्ष अरबों रूपयों का बजट व्यय करने वाले शिक्षा-कार्यालयों में बैठे अधिकारियों की क्या कोई नैतिक जबाबदेही या उत्तरदायित्व नहीं है? आखिर ऊंचे औहदों पर बैठे वे लोग जो शिक्षा-प्रबंधन और प्रशासन के लिए सीधे तौर पर उत्तरदायी हैं, और जो शिक्षा कार्यालयों मे बैठकर विद्यालयों के लिए नीतियाँ भी बनाते हैं, सरकारी स्कूलों के गिरते स्तर के लिए उतरदायी क्यों नहीं माने जा सकते?
वास्तव में अब सार्वजनिक रूप से यह बहस होनी ही चाहिए कि जब स्वंतत्र(निजी) विद्यालय लगातार सफल हो रहे हैं तो क्या कारण है कि सरकारी विद्यालय सफल नहीं हो पा रहे हैं। यदि लगातार प्रयासों के वाबजूद सरकारी स्कूल सफल नहीं हो पा रहे हैं तो इसके लिए शिक्षा- प्रशासन और शिक्षा प्रबंधन में वास्तविक सुधार की नीति बनाई जा सकती है, साथ ही श्रेष्ठतम लोगों को शैक्षिक प्रशासन, पर्यवेक्षण और प्रंबधन के क्षेत्र में लाया जा सकता है।
मान्यवर,
अब शिक्षा मंत्रालय ऐसे जन प्रतिनिधि को सौंपा जाना चाहिए जो शिक्षा के परिणामों के प्रति स्वयं को उत्तरदायी मानता हो। जब देश में किसी रेल दुर्घटना के लिए रेलमंत्री को उत्तरदायी मान लिया जाता है, किसी राजनैतिक दल की निर्वाचन में हार होने पर उसके अध्यक्ष और पदाधिकारी भी अपनी जिम्मेदारी स्वयं लेते हैं, (और अपना पद छोड़ते हैं) तो सरकारी स्कूलों की असफलता के लिए भी अब शीर्ष पर बैठे शिक्षा-विभाग के सक्षम प्रशासनिक अधिकारी वर्ग के साथ-साथ विभागीय मंत्री को भी उत्तरदायी माना जाना चाहिए? माननीय मुख्यमंत्री जी! आपको इस दिशा में विचार एवं समुचित कार्यवाही करना ही चाहिए तभी सरकारी स्कूलों को सफल स्कूल बनाया जा सकता है।
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(लेखक एनसीईआरटी के पूर्व सदस्य और शिक्षक संदर्भ समूह के समन्वयक है)
सरकारी स्कूलों की असफलता के लिए क्या कभी शिक्षा प्रशासन को भी उत्तरदायी माना जायेगा.......?